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आज़ादी से पूर्व बिहार में हुए सांप्रदायिक दंगों पर ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का एक नोट , ‘बहुत से ऐसे मुसलमान थे..’

1946 में, हिंदुस्तान में जो फसादात (दंगे) शुरू हुए थे उसकी शुरुआत, मुस्लिम लीग ने कलकत्ता के अपने ‘डायरेक्ट एक्शन’ (सीधी कार्रवाई) से किया था। कलकत्ता के फसादात के शुरुआत में तो हिंदुओं के कुछ आदमी मारे गए थे, लेकिन, जब हिंदुओं और सिखों ने, मुस्लिम लीग की तरह तशद्दुद (हिंसा) का सहारा लिया, तो उस जगह के मुसलमानों के जो जान व माल का नुकसान हुआ उसको बयान नहीं किया जा सकता है। मुस्लिम लीग ने इस सिलसिले को जारी रखने के लिए, नोवाखली में, कलकत्ता का बदला लेने के बहाने, हिंदुओं पर ज़मीन आसमान एक कर दिया (टूट पड़े)। और उन लोगों ने ऐसा अत्याचार और अमानवीय कार्य किया की मानवता भी शर्म से अपना चेहरा छुपा ले। अंगेजों ने अपने “फूट डालो और राज करो” की नीति के तहत, हिंदुओं को भी अपने जाल में फंसा लिया और उन्होंने भी नोवाखली का बदला लेने के बहाने, बिहार के मुसलमानों और गरीबों पर जो अत्याचार किए, वह चंगेज और हलाकु के ज़ुल्म व सितम की याद ताजा कर देता है। मुस्लिम लीगियों के दिल की मुराद पुरी हो गई। ऐसा लगता था, वे खूदा से, इसी दिन के लिए दुआ करते थे।

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ऐसे घिनौने और नापाक इरादों के साथ वह (मुस्लिम लीग) सत्ता हासिल करना चाहते थे और या फिर वे देश के टुकड़े करने पर तुले थे। इसके लिए उन्होंने पूरे हिंदुस्तान के एक छोर से दूसरे छोर तक दंगे भड़काए और उन दंगों के खून से अपने हाथ को  रंग लिया। अंग्रेज, लीगियों के इन हरकतों पर, बड़े खुश नज़र आ रहे थे। क्योंकि हिंदुतान के उन खरमस्तियों (बेढंगेपन) से अंग्रेज नौकरशाही, इंग्लैंड की ‘लेबर पार्टी’ की सरकार को यह स्पष्ट करना चाहते थे कि हिंदूतान के लोग,जानवरों की तरह, एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं, और एक-दूसरे का हार मांस खाना चाहते हैं, और यह कि उनमें इंसानों वाली कोई खूबी नही है। इसलिए उनके सिर पर ब्रिटिश सरकार का तसल्लुत (आधिपत्य) आवश्यक है, और यदि ऐसा नहीं हुआ तो वे एक दूसरे को तबाह व बर्बाद कर देंगे।

मुस्लिम लीग, अंग्रेजों की अपनी पैदावार थी, इसलिए वे भी स्थिति का उचित लाभ उठाना चाहते थे और देश के अमन चैन और शांति को भंग करने के लिए, अंग्रेज, मुस्लिम लीगियों की पुश्त-पनाही (पीछे से समर्थन) करने लगे।

मैं खुद बिहार गया था। पटना जिले में मुसलमानों की भारी तबाही हुई थी। इस प्रान्त में विभिन्न स्थानों पर मकान लूटे गए और बर्बाद किए गए थे, आग अलग दी गई थी, जिसके नतीजे में, बहुत से लोग मारे गए थे। जब ​​मैंने उन इलाकों का दौरा किया और गांवों देहातों को देखा, तो, वे विरान और बर्बाद पड़े थे, और लोग वहां से भाग गए थे, और जो लोग वहां रह रहे थे, वे कैंपों (शिविरों) में पड़े थे। लेकिन उनकी इस कदर तबाही पर भी, मुस्लिम लीग का दिल ठंडा नहीं हुआ। वे इसी तरह के सांप्रदायिक साजिशों में शामिल थे। वे उन्ही मज़लूमों से, राजनीतिक रूप से, फायदा उठा रहे थे और उन्हें “बंगाल में हिजरत (प्रवास) कर जाओ” यानि, बिहार छोड़ कर बंगाल चले जाओ, के लिए भी उकसा रहे थे। और मैं इस फिक्र में डूबा हुआ था कि कैसे उन्हें, उनके पैतृक गांवों और घरों में, फिर से आबाद करूं। लेकिन, उन्हें, मुस्लिम लीगियों ने, ऐसा बढ़ा चढ़ा रखा था कि उनको मेरी बात पसंद नहीं आई। इसलिए मैं मुस्लिम लीग के नेताओं के पास गया। ये लोग मोहम्ममद युनुस बैरिस्टर के एक आलीशान मकान में डेरा डाले हुए थे, और जब कभी भी मैं उनसे मिलने गया, तो वे लोग खाने-पीने में लगे होते थे।

मैंने उनसे कहा, “मैं आप लोगों के पास आया हूं और आपकी खिदमत में ये अर्ज़ करता हूं कि अब, बहुत हो चुका है, अब इन गरीबों को माफ कर दीजीए। जो तबाही उनकी हो चुकी है, क्या ये  तबाही कम है? यदि आप उन्हें बंगाल ही चले जाने का मशवरा (सलाह) देते हैं और वास्तव में उन्हें वहीं आबाद करना चाहते हैं, तो मुझे इसपर कोई एतराज़ (आपत्ति) नहीं है। और यदि आप उन्हें अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए, साध्य के रूप में उपयोग करना चाहते हैं, तो यह उचित नहीं है। ये लोग काफी तबाह हो चुके हैं, उन्हें ज्यादा बर्बाद न करें”।

लेकिन इन मुस्लिम लीगियों के दिल में रहम (दया) कहां था। मुस्लिम लीग ने, उन्हें (बिहारियों को) बंगाल की तरफ भेजवा दिया। बरसात का मौसम आ रहा था, और मैंने सोचा कि अगर बारिश शुरू होने से पहले उनके घर तैयार हो जाएंगे और ये लोग अपने अपने गांवों, घरों में बस जाएंगे, लेकिन मुस्लिम लीग के लोग इस बात पर, मुझसे सहमत नही थे, क्योंकि वे आबादी के लिए तो थें नहीं, वे तो बर्बादी (विनाश) चाहते हैं। जो मुसलमान बंगाल गए, उनकी हालत और भी बदतर हुई। उनमें से कुछ की रास्ते में ही मौत हो गई, कुछ बंगाल में जाकर मर गए और जो बाकी बच गए वह वापस पटना आ गए। अब उनके दिमाग कुछ ठिकाने आ गए थे। और उनकी समझ में यह भी आ गई थी कि  मुस्लिम लीग ने, उनके लिए कुछ किया तो है नही और कुछ करवा भी नहीं सकती थी। बल्कि, लीग, उन्हें, अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करते हैं, और उन्हें किसी किस्म की मदद फराहम नही करते और न ही कोई मदद उनके बस में था।

बहुत से ऐसे मुसलमान, जिन्होंने अपनी दौलत को ज़मीन के अंदर दबा रखा था, चहते थे कि, उन्हें, कोई ऐसा आदमी मिल जाए जो उनके साथ जाकर उनके माल को ज़मीन से बाहर निकालने में, उनकी मदद करे, लेकिन, मुस्लिम लीगी तो डर से पटना से बाहर नहीं निकल सकते थे। मैं ही अकेला था जो उन्हें, उनके गाँवों में ले जाता था और वे अपने अपने दफीने (ज़मीन में दबे माल) को बाहर निकाल लेते थे। खैर, मैनें अपनी उपस्थिति में इस काम को बखूबी अंजाम दिया, किसी ने कोई एतराज़ नहीं किया और न ही किसी ने उन्हें छेड़ने की हिम्मत नहीं की, और न ही किसी को मेरी मौजूदगी में उन्हें छेड़ने की हिम्मत हुई। आखिरकार, थक हार और बहुत कष्ट सहने के बाद, ये लोग मेरे पास आए। और उन लोगों ने मुझे बताया कि बरसात शुरू होने वाली है। अगर मैं सरकार से अपने प्रभाव का उपयोग कर उनका घर बनवाने के लिए, किसी तरह सरकार को राजी कर सकूं, तो,  वे लोग अपने अपने घरों और गांवों में वापस जाना चाहेंगे। मैंने सरकार से कहा और सरकार ने तुरंत उनके पुनर्वास के लिए आदेश जारी कर दिया। और गांवों  में मकान बनने शुरू हो गए।

बरसात करीब थी, काम चल रहा था और बहुत अच्छे से चल रहा था। लेकिन मैंने सोचा कि अगर महात्मा भी बिहार में आ जाएं, तो यह काम और भी तेजी से होने लगेगा और बरसात शुरू होने तक काम भी पूरा हो जाएगा। इसलिए, मैंने गांधी जी को एक खत लिखा। वे उन दिनों, नोवाखली में थे, क्योंकि, वहां भी काफी तबाही मची थी। मेरा पत्र मिलते ही महात्मा गांधी बिहार आ गए, और आकर उन क्षेत्रों का दौरा करना शुरू कर दिया और मुसलमानों को बहुत प्रोत्साहन दिया और ढारस बढ़ाया। उनको हर तरह से दिलासा दिया। उनके आगमन के साथ ही, काम बड़े जोर शोर से शुरू हो गया। मुर्दुला बहन भी गांधीजी के साथ थीं और वह उस समय गांधी जी की सचिव थीं। उन्हें भी मुसलमानों के साथ बड़ी हमदर्दी (सहानुभूति) थी और उन्होंने मुसलमानों की बड़ी खिदमत की, जिसकी वजह से मैं आज भी उनका आभारी हूं। और यहीं पर मेरा मुर्दुला से बाप बेटी जैसा रिश्ता बना, जिसे, हम अभी भी निभा रहे हैं।

बिहार के बाद, पंजाब और सरहद की बारी आगई, जहां बिहार का बदला लेने की लिए, मुस्लिम लीगी, न सिर्फ हिंदुओं और सिखों पर टूट पड़े, बल्कि, हमारे सूबा सरहद (NWFP) में भी ‘खुदाई खिदमतगारों’ की संवैधानिक सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए, असंवैधानिक गतिविधियों और गुंडा गर्दी शुरू कर दी। मैं इस मौके पर बिहार के परेशान और उत्पीड़ित मुसलमानों की मदद करने और उनकी सेवा करने के लिए, बिहार में था।

(नोट: प्रस्तुत अनुवाद, ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान की उर्दू _‘आप बीती’_ (1969, पृष्ठ संख्या,182–86) से लिया गया है, हिंदी अनुवाद: नूरूज्ज़मा अरशद)