क़मर क्रांति
1991 जनगणना के अनुसार भारत के 5.18 फीसदी यानी 43406932 ( चार करोड़ चौतीस लाख छह हज़ार नौ सौ बत्तीस ) लोगों की नेटिव भाषा यानी प्रथम भाषा उर्दू थी । 2001 आते आते यह आंकड़े घटकर 5.01 फीसदी हो गई जबकि 2011 की जनगणना में इसमें और भी गिरावट देखने को मिला। 2011 आते आते यह संख्या 4.19 फीसदी रह गया । जबकि अभी 2021 के आंकड़े आने बाक़ी है। यदि फिल्हाल 2011 की जनगणना को ही आधार मान लिया जाए तो भारत में प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय वरीयता के आधार पर उर्दू बोलने वालों की कुल संख्या 62772631( छह करोड़ सत्ताईस लाख बहत्तर हजार छह सौ एकत्तीस ) यानी 5.18 फ़ीसदी है। यानी जनगणना के आंकड़ों से साफ पता चलता है कि उर्दू भाषा के बोलने वालों की संख्या में लगातार गिरावट दर्ज हो रहा है।
चौंकाने वाले आंकड़े
चौंकाने वाले कुछ और आंकड़े भी हैं। भारत के टॉप 30 अख़बारों में एक भी नाम उर्दू अख़बार या मैग्जिन का नहीं मिलता है। यह हाल उस भाषा के अख़बार का है जिसके बोलने वालों की संख्या 5 करोड़ से अधिक है। जबकि देश में मात्र 2.93 फ़ीसदी मलयालम बोलने वालों का अख़बार मलयाला मनोरमा पांचवें स्थान पर है। 6.36 फ़ीसदी तमिल बोलने वालों का अख़बार दीना थानती छठे स्थान पर है जबकि 8.18 फ़ीसदी मराठी बोलने वालों का अख़बार लोकमत सातवें स्थान पर है। यानी जिस भाषा को मलयालम कन्नड़ बगैरह से ज़्यादा बोला जाता हो उसका एक भी अख़बार टॉप 10 तो छोड़िए टॉप 30 में भी नहीं है। इसलिए उर्दू के गौरवशाली दो सौ साल का जश्न मनाने वालों को सबसे पहले यह आत्ममंथन और आत्मचिंतन करना चाहिए कि आख़िर वह कौन सी वजह है कि जिस उर्दू भाषा के बोलने वालों की संख्या 1971 में 2.86 करोड़ से लगातार बढ़ते हुए 2001 में 5.15 करोड़ तक पहुंच गई थी वह संख्या 2011 आते आते घटकर कैसे 5.01 प्रतिशत रह गई।
यानी इस बदलते आंकड़ों पर ग़ौर फ़िक्र न करके उर्दू शायर प्रोफेसर टीचर सहाफी बगैरह जिस तरह से उर्दू के गौरवशाली दो सौ साल के नाम पर सेमिनार सिम्पोजियम मुशायरा जलसा कर रहे हैं यही लोग इस आंकड़े के लिए ज़िम्मेदार भी हैं।
साफ़ तौर पर यह देखा जा सकता है कि उर्दू सहाफी हो या उर्दू अख़बार के मालिक या उर्दू के प्रोफेसर टीचर या मौलाना यह लोग उर्दू के फरोग़ के लिए सेमिनार सिम्पोजियम तो करते हैं लेकिन जब बात उर्दू अपनाने की होती है तो वह अपने बच्चों को ऑक्सफोर्ड में पढ़ाने का ख्वाब रखते हैं। यह अपने बच्चों को तो मॉडर्न एजुकेशन देना चाहते हैं लेकिन ग़रीब मज़दूर झुग्गी के बच्चों को चाहते हैं कि वह मदरसों में या उर्दू स्कूलों में पढ़ें। उर्दू अख़बार मालिकों के घर में तो अंग्रेजी और हिंदी अख़बार आते हैं लेकिन इनकी मंशा रहती है कि ग़रीब मज़दूर मुसलमान उर्दू अख़बार पढ़े। काश इन्हें यह समझ में आ जाता कि उर्दू को फरोग़ सेमिनार सिम्पोजियम से नहीं बल्कि इसे अपनाने से मिलता है। उर्दू प्रोफेसर टीचर सहाफी के कितने बच्चें उर्दू मीडियम के स्कूलों में पढ़ रहे हैं यह वह खुद आंकलन कर सकते हैं । स्कूल छोड़िए जनाब कॉलेज और युनिवर्सिटी स्तर पर इनके कितने बच्चें उर्दू में ग्रेजुएशन एम ए या पीएचडी कर रहे हैं ? उर्दू संरक्षकों के बच्चें डॉक्टर इंजीनियर साइंटिस्ट बने और गरीब के बच्चें उर्दू ज़िंदा रखने की ठेकेदारी, ऐसा नहीं होता है।
बदलाव और तरक्की की डोर हमेशा समाज के संपन्न लोगों के हाथों में होता है। यह अक्सर देखा गया है कि गरीब अमीरों की ही नकल करते हैं। अमीर अगर अपने बच्चों को डॉक्टर इंजीनियर साइंटिस्ट बनाना चाहेगा तो गरीब भी उसी होड़ में शामिल होना चाहेगा भले ही उसे रिजल्ट न मिले। यहां समझने वाली बात यह है कि अगर अमीर लोग और उर्दू के कस्टोडियनस् उर्दू को अगली जेनरेशन तक लेकर जाते तो पीछे पीछे गरीब मजदूर भी इसे अपनाते और इस तरह उर्दू बोलने वालों की संख्या में गिरावट की जगह इज़ाफा होता। लेकिन जब संरक्षकों ने ही उर्दू को छोड़ दिया हो तो फिर बाक़ियों का क्या कहना। उर्दू भाषी की संख्या में गिरावट के लिए नेताओं का दोगलापन भी कम ज़िम्मेदार नहीं है। हम आए दिन देखते रहते हैं कि कोई न कोई विधायक या सांसद उर्दू में शपथ लेते हैं ।
इससे प्रतीत तो यही होता है कि नेताजी का उर्दू से कितना लगाव है। लेकिन इनका असली मकसद तो उर्दू भाषा के नाम पर मुस्लिम वोटर्स का धर्वीकरण करना होता है। क्योंकि उर्दू को फरोग़ उर्दू भाषा में शपथ लेने से नहीं मिलता है बल्कि उर्दू को अपने जीवन में अपनाने और उसे अपनी अगली जैनरेशन तक ले जाने से होता है। नेता अपनी अगली जैनरेशन को तो ऑक्सफोर्ड पहुंचाने का मिशन रखते हैं लेकिन शपथ उर्दू में देकर यह जता रहे होते हैं देखो मुझे उर्दू से कितना प्यार है । और विडंबना देखिए हम नेताओं की इस मक्कारी को समझने की जगह नेता पर फख़्र कर रहे होते हैं कि वाह नेताजी ने सबके सामने उर्दू में शपथ लिया। देश में तेज़ी से फैलती संप्रदायिकता के कुछ कारणों में एक कारण यह भी है कि नेताओं का उर्दू से कोई ज़मीनी लगाव तो नहीं होता है लेकिन उर्दू में शपथ लेते हैं।
ध्रुवीकरण की राजनीति और उर्दू
जब एक मुस्लिम विधायक या सांसद या काउंसलर उर्दू में शपथ लेता है तो ध्रुवीकरण में विश्वास रखने वाले संप्रदायिक लोग दूसरी तरफ़ यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि देश का मुसलमान आज उर्दू में शपथ लिया है, कल पूरे देश पर उर्दू थोपेगा और फिर शरिया लॉ। जबकि हकीकत यह है कि जिस नेता के खुद ज़िंदगी में और परिवार में उर्दू नहीं होता वह क्या खाक उर्दू पूरे देश में नाफिस करेगा। लेकिन संप्रदायिक ताकतों को इस हरकत से बल तो मिलता ही है।
देश के मुस्लिम युवाओं को अपनी राजनीतिक चमकाने के लिए उर्दू बोर्ड के लिए हंगामा मचाते प्रदर्शन करते अक्सर हम आपने देखा है। कभी मौक़ा मिले तो उन्हें रोक कर पुछिएगा कि आपने उर्दू मीडियम में तालीम क्यूं नहीं हासिल की? आपके कितने भाई बहन उर्दू मीडियम में पढ़ रहे हैं या कितने भाई बहन उर्दू सब्जेक्ट में बीए एमए पीएचडी कर रहे हैं? और फिर आख़िरी सवाल यह पुछिएगा कि जब आपके ज़िंदगी और परिवार के बोर्ड से उर्दू गायब है तो आप लकड़ी के इस बेजान बोर्ड पर उर्दू क्यूं देखना चाहते हैं? उर्दू के नाम पर सहानुभूति हासिल करने और नेतागिरी चमकाने के अलावा आपका कोई और मकसद तो नज़र नहीं आ रहा। क्योंकि अगर यह युवा उर्दू के सच्चे पैरोकार होते तो उर्दू मीडियम से पढ़ते, अपने भाई बहनों को पढ़वाते और अपने बच्चों को भी। लेकिन इनकी ज़िंदगी से उर्दू गायब है, हां बोर्ड के लिए सड़क पर उतर जाते हैं ताकि राजनीति चमक जाए। कुल मिलाकर समझने वाली बात यह है कि किसी भी भाषा को उसके बोलने वाले ही छोड़ दे और सिर्फ़ सेमिनार सिम्पोजियम मुशायरा जलसे के नाम पर लिफ़ाफ़ा बाज़ी करने लगे तो फिर उस भाषा का ज़वाल आ जाता है।
आज जो उर्दू के संरक्षक हैं वही लोग जब उर्दू को अपनी अगली जैनरेशन तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं तो स्वाभाविक है कि समाज के दबे कुचले तबके का लगाव भी धीरे धीरे कम होता जाएगा। जो आंकड़ों से साफ नज़र आ रहा है। अब जहां इस पर गंभीरता से आत्ममंथन और आत्मचिंतन होना चाहिए वहां दो सौ साल के नाम पर सेमिनार सिम्पोजियम मुशायरा जलसे हो रहे हैं यानी फुल फोकस बाज़ी। दिल में कुछ, ज़ुबां पर कुछ और ज़मीन पर कुछ।