रवीश का लेख: आस्था और आहत के नाम पर एक बार फिर मुसलमान उनकी जाल में फंसने जा रहे हैं!

आस्था से आहत के नाम पर आहत की आस्था आफ़त पैदा करती है, दंगाई बनाती है. भीड़ और उसकी हिंसा का अगर-अगर नहीं होता है। मुसलमान की भीड़ हो या हिन्दू की, उसकी हिंसा का कोई धर्म नहीं होता है। पहले या बाद के नाम पर होने वाली हिंसा का कोई तुक नहीं होगा।शुक्रवार को उत्तरप्रदेश के कई ज़िलों में जो हुआ है, उसे नहीं होने देना चाहिए था।नाराज़गी और आक्रोश में अंतर होता है। आस्था के नाम पर नाराज़गी को आक्रोश में बदलने वाले जानते हैं कि इससे न तो आस्था बेहतर होती है, न आस्था को बदनाम करने वाले सुधरते हैं। इसके नाम पर हिंसा करने वाले दंगाई, बलवाई ही कहे जाते हैं।जिनके हाथ में पत्थर नज़र आ रहे हैं, उन्हें और तो कुछ कहा नहीं जाएगा। उनकी हिंसा से उस भीड़ को ख़ुराक मिलेगा, जो हर दिन इसी का माहौल बनाती है, इसी के ख़तरे की आशंका बहुसंख्यक के मन में बिठाती है। इन खुराकों के लेन-देन से कुछ नहीं होगा। कहीं ज़्यादा भीड़ बनेगी, कहीं कभी कम भीड़ बनेगी। कोई दस कारें जला देगी, कोई तीन कारें चला देगी। ऐसा करने वाले कानून की हर किताब में और दुनिया की हर किताब में केवल दंगाई कहे जाएंगे। किसी की प्रतिक्रिया में हिंसा करने वाला और किसी को हिंसा के लिए उकसाने वाला दंगाई ही होता है। चाहे वह बच जाए या पकड़ा जाए, दंगाई ही होता है।

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यूपी ही नहीं देश के कई शहरों में हिंसा की ख़बरें हैं। जहां से शांति की ख़बरें हैं, वहां भी तनाव की आशंका थी। प्रयागराज में जिनके हाथ में पत्थर हैं, वो अच्छी तरह जानते होंगे कि उन्होंने क्या किया है। उन्होंने ख़ुद को जानबूझ कर उस बड़ी भीड़ का चारा बना दिया है, जो पत्थरबाज़ों के नाम पर बनाई जाती रहती है। इस बहुसंख्यक भीड़ को सड़क पर उतरने की ज़रूरत नहीं है,उसे केवल इस तरह का चारा चाहिए।बाकी का काम वह गोदी मीडिया,सोशल मीडिया और प्रशासन की मदद से कर लेती है। हिंसा की इन तस्वीरों को दिखा कर बड़ी भीड़ पीड़ित पक्ष बनने लगेगी। कहेगी कि हमारी बातें सही हो रही है। वह अपराधी से निर्दोष बनने लगेगी। टीवी के स्टुडियो से भीड़ को बडा कर बदला ले लेगी।बड़ी भीड़ को छोटी भीड़ का बस इतना ही इस्तेमाल करना है, कि अपनी भीड़ को और बड़ी करना है।

प्रयागराज के पत्थरबाज़ों ने बड़ी भीड़ कों ख़ुराक दे दिया है। पत्थरबाज़ी एक सेगमेंट है, जिसके नाम पर मुस्लिम समुदाय को लगातार चिन्हित किया गया,उसे पत्थरबाज़ के रूप में पेश किया गया। इस पैटर्न पर फिर कभी बात होगी लेकिन जब प्रयागराज के मुस्लिम युवा पत्थर उठा लेंगे तो उनकी व्याख्या पहले से तैयार इसी फ्रेम में होनी ही होनी है। ग़लती आपकी है जो आपने पत्थर उठाए। अब शुरू होगा चुप्पी-चुप्पी का खेल। ये चुप हैं, वो चुप हैं के नाम पर बड़ी भीड़ के समर्थक निकलेंगे।उनके हाथ में भी पत्थर होता है लेकिन वह ईंट का टुकड़ा नहीं होता है। बातों का टुकड़ा होता है। ये लोग पूछेंगे कि कानून को हाथ में लेने वाले लोग चुप हो गए हैं। देखिए, इसे भी समझिए। ऐसा करने वाले कभी कानून के लिए नहीं आते हैं। नहीं तो यही लोग तब भी बोलने आते जब कानून की एजेंसी का इस्तेमाल कर एक समुदाय पर अत्याचार हुआ। जब कोर्ट का फैसला आने से पहले घरों पर बुलडोज़र चलाए गए, तब यही लोग कानून व्यवस्था का श्रेष्ठ उदाहरण बता रहे थे।

ये क्रिमिनल मानसिकता के लोग हैं, जो इस मौक़े पर चुप्पी-चुप्पी खेलने आते हैं। ये हमेशा ऐसे ही मौक़े पर बाहर निकलते हैं। टीवी और सोशल मीडिया में हर दिन बातों का पत्थर चला कर ये लोग अपना कानून बना चुके हैं।इनकी चुप्पी का हिसाब देखेंगे तो सबसे ज्यादा इनके खाते से निकलेगा।इसके बाद भी इन बातों का जवाब बातों से ही दिया जा सकता है। पत्थर से नहीं। किसी की कार या दुकान फूंक कर नहीं दिया जा सकता।

बात इतनी है कि हिंसा में शामिल होकर आप ख़ुद को गोदी मीडिया और पुलिस के लिए चारा बना रहे हैं।याद रखिएगा, पुलिस भीड़ छंटने के बाद आती है। जब पुलिस आती है तो भीड़ भाग जाती है।तब जब पत्थर चलाने वाला अकेला होता है। वर्षों मुकदमे चलते हैं। पत्थरबाज़ों हिंसा से केवल ‘उनके’ घर नहीं जलते,’अपनों’ के भी जलते हैं। लोगों का जीवन तबाह हो जाता है।इस हिंसा से आप बदला ले पाते हैं न कुछ बदल पाते हैं। मुस्लिम समाज कई तरह के पिछड़ेपन का शिकार है, उसके लिए तो प्रदर्शन नहीं होता है। ग़ैर-कानूनी ढंग से लोगों के घर बुलडोज़र से गिरा दिए गए, तब तो कोई प्रदर्शन नहीं हुआ।

अपने सवालों को पहचानना बहुत ज़रूरी होता है।आस्था और आहत के सवाल को इतना बड़ा मत बनाइये। इसके कारणों की पहचान कीजिए। जब मौलाना इस्लामिक विद्वान के नाम पर गंदी ज़ुबान में बातें कर रहे थे, तब आक्रोश क्यों नहीं भड़का। तब पर्सनल लॉ बोर्ड को यह अक्ल क्यों नहीं आई कि इससे हर दिन समाज में मुसलमानों के प्रति घृणा फैल रही है। क्या किसी को नहीं दिख रहा था कि अगर गोदी मीडिया का ऐंकर खराब बोल रहा था, तो ये मौलाना या इस्लामी विद्वान उनसे भी ज़्यादा ख़राब बोल रहे थे। इनकी बातों के कहने में कोई सलीक़ा भी था, ज़रा जाकर यू ट्यूब में उन वीडियो को देखिए। कुछ बदला नहीं है। आज के पहले मौलाना गोदी मीडिया में जाकर ख़ुशी-ख़ुशी उसका चारा बन रहे थे, अब प्रयागराज के लड़के हाथ में पत्थर उठाकर चारा बनेंगे।हर बार अपने से उनकी जाल में फंस कर आप किसी और पर गुस्सा नहीं निकाल सकते।

आस्था और आहत के नाम पर एक बार फिर मुसलमान उनकी जाल में फंसने जा रहे हैं। लोकतंत्र में अपने आक्रोश को समझना बहुत ज़रूरी होता है। इसे फोड़ कर या फाड़ कर कुछ हासिल नहीं होता है। शुक्रवार की हिंसा के पीछे आस्था और आहत का आक्रोश है तो यह दुखद भी है और बेमतलब भी।इसका कोई अंत नहीं है। इसके नाम पर दंगाई ही पैदा होते हैं।कानून का अमल नहीं होता है, यह बहस का मुद्दा है। मान लेते हैं कि कानून का अमल नहीं होता तब भी प्रदर्शन कानून के अमल के लिए होगा, कानून को हाथ में लेने के लिए नहीं।इस बहस में पुलिस की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं। कई जगहों पर ऐसे वीडियो आए हैं, जिससे पुलिस की क्रूरता ज़ाहिर होती है। बड़ी भीड़ के दंगाइयों को लेकर उसकी चुप्पी भी कई बार दिखती है। क्या आप इससे नज़र मोड़ सकते हैं?

नूपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल के फालतू बयान पर जितनी निंदा होनी थी, वह पर्याप्त है।इन दोनों के एक बयान पर आहत होने का सवाल मत बनाइये क्योंकि गोदी मीडिया के ज़रिए हर दिन जो बातें कहीं जा रही हैं, वो भी कम ख़तरनाक हैं। आप सबसे ख़तरनाक चुनकर आसान लड़ाई मत चुनिए। ऐसा कर मुसलमान अपने ही समाज का बड़ा नुकसान करने जा रहे हैं। नूपुर और नवीन के एक बयान को उस पैटर्न और उसके सिस्टम के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसके तहत हर दिन एक समुदाय के बारे में नफरत फैलाई जाती है, उस समुदाय को अपमानित किया जाता है।इसे फोकस में रखिए। नुकसान इससे हो रहा है और हिन्दू मुसलमान दोनों को हो रहा है।

आठ साल से गोदी मीडिया पर चलने वाली बहसें आभासी क्रिया या प्रतिक्रिया का माहौल रच कर दंगाई मानसिकता के समर्थन के लिए माहौल तैयार कर रही हैं। उनकी आभासी वास्तविकताओं को असली वास्तविकता में मत बदिए। बल्कि इस पैटर्न को लेकर लगातार बहस कीजिए, संवाद कीजिए ताकि व्यापक समाज भी शामिल हो सके। इसके लिए ज़रूरी है कि माहौल में आस्था और आहत की भावुकता का कम से कम जगह हो। आस्था के नाम पर होने वाली बहस सबसे कमज़ोर बहस होती है मगर इसका नुकसान सबसे बड़ा होता है।

हिन्दू हों या मुसलमान, दोनों को आस्था और आहत की भावुकता के नाम पर उग्रता से बचना चाहिए।सांप्रदायिक हिंसा का यही तो इतिहास है। उसने किया तो हम करेंगे, हमने किया तो वो करेगा। वो ग़लत हैं, हम सही हैं। हम सही हैं, वो ग़लत हैं। पहले और बाद का कोई हिसाब नहीं रह जाता। लाशें रह जाती हैं, जली दुकानें रह जाती हैं, टूट घर रह जाते हैं।इसलिए किसी भी भीड़ में ईगो लेकर न जाएं। आपके ईगो से भीड़ का ईगो बड़ा होता है। ईगो से हिंसा होती है, ईगो से आप दंगाई बन जाते हैं। जिस किसी भीड़ में जितना कम ईगो होगा, वह भीड़ उतनी ज़्यादा लोकतांत्रिक होगी। उसकी मान्यता उतनी ही अधिक होगी। हो सकता है तब भी हमला हो जाए लेकिन इसकी आशंका से बचने की तैयारी होनी चाहिए, न कि लड़ने की। फिर तो कोई इसी के लिए हमला करा देगा। लेकिन जब ईगो कम होगा तब हमला कराने पर भी हिंसा नहीं भड़केगी।

एक ही रास्ता है। वही अंतिम रास्ता है। बेहतर बहस का माहौल बने। बातों के पीछे कोई भीड़ न खड़ी हो। सुनने वाले खड़े हों। निंदा, प्रशंसा, मौन और संवाद का असर ही होगा, नहीं होगा तो नहीं होगा लेकिन पत्थर उठाकर प्रदर्शन करने का असर केवल बुरा होगा और पक्का होगा। जो मुस्लिम नौजवान फर्ज़ी आक्रोश दिखा रहे हैं, उनके लिए एक काम बताता हूं। वे उन मुद्दों को छोड़ दें जिनका संबंध धर्म से है, वे उन मुद्दों की तलाश करें जिनका संबंध लोकतंत्र से है, उनके जीवन और अधिकार से है।यही बात हिन्दू युवाओं से भी कहता हूं।आप दोनों एक ही मोड़ पर पहुंचेंगे। जहां आगे का सफ़र तभी तय होगा, जब आप दोनों गले मिलेंगे।मेरी इस बात को एक बार आज़मा कर देख लीजिए।

हम जैसे लोग अपना नतीजा जानते हैं। हम अपनी ही बातों से हार जाते हैं या हरा दिए जाते हैं। हिन्दू भीड़ या मुस्लिम भीड़ बनती रहेगी। इसका माहौल बनाने वाले ही तय करेंगे, न कि इस माहौल की आलोचना करने वाले। यह बात यह बात उसी दिन तय हो गई थी, जब इस देश में गांधी की हत्या हुई थी। गांधी की हत्या के बाद भी गांधी की बात बची रह गई। उन बातों से कई बार दंगे रुके हैं। लोग समझे हैं। ऐसा नहीं कि गांधी की बातों से हिंसा नहीं रूकी।सारी हिंसा नहीं रुकी, मगर कुछ तो रुकी ही। इसी उम्मीद में हमारे जैसे लोग हारते रहेंगे, गांधी की बातों को दोहराते रहेंगे।