एक सामान्य अवधारणा है कि मुसलमान शिक्षा से दूर हो गए या हो रहे हैं। ये बेहद ही सतही दावा है। हां ज्ञान विज्ञान के मामले में यूरोप या अमेरिका की बराबरी फिल्हाल नहीं है लेकिन दक्षिण एशिया के तीन देश (मूलतः एक ही भूभाग, संस्कृति और नस्ल) इसका अपवाद हैं। इसकी बड़ी वजह ये है कि यहां जो वर्ग इस्लाम के दायरे में आए उनका तारीख़ी तौर पर तालीम से लेना देना नहीं था। यहां मुसलमान कौन हुए? या तो पेशेवर क़ौमें यानि जिनकी आजीविका का साधन उनके पारिवारिक पेशे थे, जैसे जुलाहा, तेली, धुना, लुहार, बढ़ई, नाई, पासी, जाटव, खटीक आदि या फिर वो जो फौजी छावनियों में घोड़े बांधने, लीद उठाने, माल और गोला बारूद ढोने, रसद पहुंचाने, खाना बनाने आदि के काम में लगे मज़दूर। इनमें से किसी को भी अपने काम में दक्षता हासिल करने के लिए पीएचडी की ज़रूरत नहीं है। बल्कि अपने हुनर के दम पर इनमें से कई कमाई के मामले में आईएएस से आगे हैं। बहरहाल, एक ऊपर का तबक़ा, यानि शासक वर्ग भी मुसलमान हुआ। इनमें कुछ छोटे-बड़े राजा, ज़मींदार, जागीरदार और फौजी अफसर थे लेकिन इनकी तादाद बहुत ज़्यादा नहीं थी। ऐतिहासिक तौर पर राजा, प्रशासक या फौजी अफसर कोई परमाणु वैज्ञानिक या स्पेस साइंटिस्ट नहीं होते।
एक सामान्य कामकाजी शिक्षा के अलावा उनको अपने काम की ट्रेनिंग भर दी जाती है। वैज्ञानिक, लेखक, साहित्यकार, कलाकार, इतिहासकार और बुद्धिजीवी उच्च मध्यम वर्ग में पनपते हैं। जिनका पेट भरा होता है, शासक वो हो नहीं सकते सो कुछ बड़ा करके नाम कमाने की चाह इसी वर्ग में पनपती है। दुर्भाग्य से पिछले 1400 साल में बहुत कम देश हुए जहां मुसलमानों में मध्यम वर्ग का विकास हुआ। दक्षिण एशिया में मुसलमान या तो मुट्ठी भर शासक वर्ग में रहे या शासकों के प्रभाव में मुसलमान हुए मज़दूर, पेशेवर और सैन्य वर्ग। अकबर, जहांगीर और शाहजहां का काल इस मामले में स्वर्णकाल कहा जा सकता है लेकिन दुर्भाग्य से उनके वारिसों ने मध्यम वर्ग का विकास होने ही नहीं दिया। मुसलमानों को बेवजह के युद्धों में झोंक कर न सिर्फ कारोबारी तबक़ों, बल्कि शिक्षा, ज्ञान और विज्ञान की अनदेखी की और दिनों दिन पिछड़ते चले गए। भारतीय उपमहाद्वीप में स्थायी तौर पर मध्यम वर्ग का विकास अंग्रेज़ों के काल में हुआ। इसकी वजह पेशेवर कामों पर मशीनीकरण की मार और उच्च वर्ग की 1857 के बाद शासन, प्रशासन में अनदेखी थी। 1947 में उपमहाद्वीप का नया विभाजन इस वर्ग के लिए नई चुनौती लेकर आया। जिन्ना पढ़े लिखे मुसलमानों को समझाने में कामयाब रहे कि उनका हिंदू बाहुल्य भारत में कोई भविष्य नहीं है।
कुल मिलाकर कह सकते हैं इस उपमहाद्वीप में इस्लाम के दायरे में वो लोग रहे जिनका न तो शिक्षा से वास्ता रहा और न उनको ज़रूरत थी। 1857 के बाद बदले हालात में मुसलमान मध्यम वर्ग का विकास हुआ लेकिन वो 1947 में पाकिस्तानी या भविष्य का बांग्लादेशी हो गया। भारत में बचे पेशेवर तबक़े और ज़मींदार। 1956 में ज़मींदारी उन्मूलन के बाद ये वाला वर्ग पेशेवर छोड़िए भूमिहीन दलितों से भी बदतर था। अगले तीस साल मुसलमानों को अपना अस्तित्व बचाने में ख़र्च करने पड़े। तो जो दलित या क़बायली इधर आए थे वो किस काल में अबुल कलाम या एपीजे कलाम बन जाते? इसलिए जब संघियों की हुआं हुआं में आवाज़ मिलाकर वामपंथी या प्रगतिशील लोग कहते हैं कि मुसलमानों ने शिक्षा की अनदेखी की तो वो ये तथ्य भूल जाते हैं कि भारत में जिनकी तुलना वो साधनसंपन्न ब्राह्मण या वैश्य से कर रहे हैं वो ऐतिहासिक तौर पर भूमिहीन, साधनविहीन तबक़े हैं जिन्होंने किसी तरह हाथ पैर मारकर ख़ुद को तुलना लायक़ बना लिया है। ये वो वर्ग हैं जिन्होंने मशीनीकरण की मार के आगे घुटने नहीं टेके, ज़मीनें छिनने पर स्यापे नहीं बिखेरे, स्कूल- कॉलेज और आरक्षण न मिलने पर आंदोलन नहीं किए। जैसे भी हालात रहे और जैसा भी काल रहा भारत के मुसलमान आगे ही बढ़े हैं, पीछे नहीं गए। इनकी तुलना उन लोगों से कीजिए जिनको ये अपने मूल धर्म में छोड़कर आए हैं।
पिछले सत्तर साल में तमाम भेदभाव, आरक्षण, सरकारी नौकरियों, अनुदान, मुफ्त शिक्षा और सरकार में हिस्सेदारी के बावजूद मूल धर्म में रह गए इनके रिश्तेदार इनकी बराबरी नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए बेहतर है कोसने या सरकार की विफलताओं को ढंकने के लिए इनका इस्तेमाल न किया जाए बल्कि बराबरी के अवसर दिए जाएं। इन तमाम बातों पर ग़ौर करेंगे तो पाएंगे कि मुसलमान दूर नहीं बल्कि लगातार शिक्षा की तरफ बढ़ रहे हैं। उनके पिछड़ेपन की वजह शिक्षा नहीं हालात से निपटने की नाकामी और सरकारी अनदेखी हैं।
(लेखक पत्रकारिता से जुड़े हैं, ये उनके निजी विचार हैं)