रवीश का लेख: रेज़िडेंट डॉक्टरों की हड़ताल राष्ट्रीय इमरजेंसी है लेकिन राष्ट्र धर्म में मस्त है
3000 ऑपरेशन कैंसल करने पड़े हैं। अकेले दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में। देश भर में क्या हालत होगी किसी को चिन्ता नहीं। मज़बूूत नेता गाय और धर्म पर भाषण दे रहे हैं। रेज़िडेंट डॉक्टरों का समूह शुक्रवार से हड़ताल पर है। एक एक दिन मरीज़ों पर भारी पड़ती होगी लेकिन इस देश में अब किसी को किसी बात से फर्क नहीं पड़ता। रेज़िडेंट डॉक्टर की हालत खराब हो। उन्हें दिन में बीस घंटे या बिना छुट्टी के दस दस दिन काम क्यों करना चाहिए? क्या उनका जीवन नहीं है? ज्यादा डॉक्टर रखिए। हर शिफ्ट में रखिए। लेकिन पूरा समाज इन दिनों धर्म के नाम पर बौराया हुआ है। लोगों का जीवन ऐसे ही अमानवीय होता जा रहा है। काम करने के घंटे बढ़ रहे हैं और वेतन मामूली।
क्या आप जानते हैं कि पांच पांच साल एम बी बी एस पढ़ कर निकलने इन डॉक्टरों को कितनी कम तनख्वाह मिलती है? कहीं पंद्रह हज़ार तो कहीं बीस हज़ार। पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई के बिना वे अच्छे डाक्टर नहीं बन सके। अगर समय पर काउंसलिंग नहीं होगी तो नया बैच नहीं आएगा। जिसकी वजह से मौजूदा रेज़िडेंट डॉक्टरों पर काम का बोझ जानलेवा होता जा रहा है। क्या यह राष्ट्रीय इमरजेंसी का विषय नहीं होना चाहिए?
मरीज़ों की भी कोई नहीं सोच रहा है। एक दिन की हड़ताल काफी थी कि हर स्तर पर सरकार में हड़कंप मच जाता। ग़रीब मरीज़ भी दर दर मारे फिर रहे होंगे। उन्हें भी धर्म के नाम पर गाय और मंदिर का तड़का दिया जा रहा है। कहीं से कोई नरसंहार के लिए ललकार रहा है तो कोई हिन्दू राष्ट्र बनाने की शपथ दिला रहा है। लेकिन आम जीवन की इन बर्बादियों से किसी को लेना-देना नहीं है। एक बार सोच कर देखिए। किसी के घर कोई बीमार होगा, तुरंत डॉक्टर की ज़रूरत है और अस्पताल में हड़ताल है। मरीज़ और परिजन किस तरह से मारे-मारे फिर रहे होंगे।
रेज़िडेंट डॉक्टरों की मांग बिल्कुल सही है। सरकार को सोचना चाहिए। मामला अदालत में है तो सिर्फ इसी नाम पर इसे नहीं छोड़ा जा सकता। डॉक्टर हड़ताल पर हैं। पर चलिए किसे फर्क पड़ता है। हम अपना वक्त निकाल कर लिख रहे हैं। पता चला कि मरीज़, परिजन और डॉक्टर हिन्दू राष्ट्र की धारा में बह रहे हैं और अपने ही नागरिकों को धर्म के आधार पर खुलेआम मार देने के शपथ समारोह पर नहीं बोल रहे हैं। अफसोस। थोड़ा तो रुकिए। सोचिए।
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